स्वामी विवेकानंद का दिव्य चरित्र part – 2
➜स्वामी विवेकानंद का उपनाम नरेंद्र और नरेन था।
नरेंद्र को जीवन में आगे बढने की प्रेरणा कहा से मिली?
नरेंद्र के घर में सभी लोग धार्मिक और आध्यात्मिकता की ओर झुके हुए थे।उनके घर में ग्रंथो का अध्ययन किया जाता था,नित्य पाठ – पूजा होती थी।अच्छा और धार्मिक माहौल उनके घरमे बना रेता था।साधु और दूसरे लोगो प्रत्ये आदर सम्मान,लोगों की सहायता करनी,ये सब माहोल के बीच नरेंद्र पले बढे थे।
नरेंद्र अपने माता – पिता,दादा या कथावाचक से नित्य संस्कृति,धर्म ओर ईश्वर के बारे में प्रश्न पूछा करते थे।उनके अंदर भगवान को जानने की प्रबल लालसा थी,ईश्वर के बारे में जानने की उत्सुकता में वे कभी – कभी ऐसे प्रश्न पूछ बेठते थे की उनके माता – पिता और कथावाचक भी कई बार चक्कर में पड जाते थे।वे सदैव जानने की प्रवृति को अपने भीत्तर रखते थे। नरेंद्र की जिज्ञासा प्रवृति और धर्म के प्रति लगाव घर में बने अच्छे माहौल के कारण बना था।
नरेंद्र नाथ की शिक्षा
नरेंद्र 5 साल के हुए तब एक स्कूल में घरवालों ने दाखला करवा दिया था।किंतु,वहां बच्चों की बुरी सगंती में अपशब्द सीखने लगे।तुरंत माता – पिता अपने बच्चें के मुख से अपशब्द सुनते ही उन्होंने स्कूल में से ही नाम निकाल दिया और घर में ही ट्यूटर को रख लिया।नरेंद्र को पढाने के साथ साथ आसपास के बच्चें भी इस ट्यूटर के पास शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थे।नरेंद्र किसी भी पाठ या चीज को एक बार पढके याद कर लेते थे उसको दोबारा पढने की जरूरत नहीं पडती।बाकी बचे दोबारा प्रयत्न करने के बाद भी सब याद नही रख पाते थे।नरेंद्र तो सब सुनकर ही याद कर लेते थे।नरेंद्र को 7 साल की उम्र में संस्कृत व्याकरण की किताब पूरी तरह याद हो गई।साथ ही,उनके घर पर ही प्रारंभिक शिक्षा दादा तथा उनके माता – पिता की देख रेख में हुई।
सन् 1871 में आठ साल की उम्र में,नरेंद्र को प्राथमिक ज्ञान के लिए ईश्वरचंद विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन संस्थान में भेजा गया।
सन् 1877 में उनका परिवार किसी कारणवश रायपुर चला गया था,इसी बीच कुछ समय के लिए उनकी पढाई बाधित हो गई थी।
दो वर्ष पश्चात सन् 1879 में उनका परिवार वापस कलकत्ता आ गया। वहां की प्रसिद्ध कॉलेज प्रेसीडेंसी कॉलेज की एंट्रेस परीक्षा में फर्स्ट डिवीजन लाने वाले प्रथम विद्यार्थी बने।स्वामी विवेकानंद के लिए यह प्रशंसनीय सफलता थी, बाकी विद्यार्थी के लिए यह सफलता एक सपना समान थी।
स्वामी विवेकानंद भिन्न भिन्न विषयों जेसे धर्म, इतिहास,दर्शन शास्त्र,कला ओर साहित्य में गहन रुची रखते थे।
पश्चिम साहित्य के धार्मिक विचारों तथा क्रांतिकारी घटनाओं का सूक्ष्मता से अध्ययन करते थे।हिंदू धर्मग्रंथो जेसे रामायण,महाभारत,वेद,उपनिषद,पुराण, भगवद गीता में अधिक रुचि रखते थे।हमेशा शारीरिक योग,खेल ओर भी कई प्रवृति में हिस्सा लेते थे।नरेंद्र भारतीय पारंपरिक संगीत में निपुण थे ओर उनको भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित भी किया गया था।
नरेंद्र ने जनरल असेंबली इंस्टीट्यूट(अब स्कोर्टिश चर्च कॉलेज) में पश्चिमी तर्क,पश्चिमी दर्शन ओर यूरोपीय इतिहास का अध्ययन किया था।
सन्1881 में ललित कला की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। सन् 1884 में उन्होंने कला स्थानक की डिग्री पूर्ण कर ली।बाद में अपनी बी.ए. की परीक्षा अच्छी योग्यता से पूर्ण कर अपनी ग्रेजुएशन को समाप्त किया,फिर उन्होंने वकालत की पढाई की।
सन् 1884 का समय स्वामी विवेकानंद के लिए बेहद दुखी था। क्यूंकि उनके पिता विश्वनाथ दत्त की मुत्यू दैवयोग से हो गई।पिता के जाने के बाद स्वामी विवेकानंद पर घर की जिम्मेदारियां और 9 भाई – बहन की जिम्मेदारी भी उनके सर पे आ गई थी।घर की परिस्थिति अत्यंत खराब थी।
अत्यंत दरिद्रता में भी वो अतिथि की सेवा करते थे। वो स्वयं भूखा रहकर अतिथि को भोजन कराते थे,स्वयं बाहर रहकर अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते।इन सभी के बीच घर की जिम्मेदारी उनके सर पे आने के बावजूद स्वामी विवेकानंद गभराए नहीं और इस जिम्मेदारी को बेहद अच्छी तरीके से निभाया।
नरेंद्र ने जोहान गोटलिब फिच,डेविड ह्यूम,इमेनुएल कांत,बारुक स्पिनोजा,जॉर्ज डब्लू एच हेजल,आर्थर स्कूपइन्हार, ऑगस्ट कोम्टे,जॉन स्टुअर्ट मिल और चाल्स डार्विन के कामों का अध्ययन किया था।उन्होंने स्पेंसर की किताब एजुकेशन का बंगाली में अनुवाद किया था।वे हर्बर्ट स्पेंसर के विकासवाद से काफी मोहित थे।
स्वामी विवेकानंदे पश्चिम दार्शनिको के अध्ययन के साथ ही संस्कृत ग्रंथों और बंगाली साहित्य को सिखा।
विलियम हेस्टी(महासभा के प्रिंसिपल)ने लिखा की, “नरेंद्र वास्तव में एक जीनियस है”। मैंने काफी विस्तृत और बडे इलाको में यात्रा की हे,लेकिन मेने नरेंद्र जैसा प्रतिभासाली बालक कहीं नहीं देखा। यहां तक की जर्मन विश्वविद्यालयों के दार्शनिक छात्रों में भी नहीं।
नरेंद्र को शिक्षा के प्रत्ये काफी लगाव था।नरेंद्र के प्रतिभा के चर्चे उनके बचपन से ही थे।उनको बचपन से ही अपने गुरुओं की प्रशंशा मिली थी।नरेंद्र को अनेक बार ‘श्रुतिधर’ भी कहा गया है।
ब्रह्म समाज का प्रभाव – आध्यात्मिक शिक्षा
नरेंद्र के परीवार के सदस्य आध्यात्मिकता के और जुके हुए थे।इसी तरह नरेंद्र भी बचपन से ही आध्यात्मिकता की ओर जुके हुए थे।वे धार्मिक ग्रंथो,वेद,उपनिषद, पुराणों में गहन रुची रखते थे।यह सब पढकर अपनी जिज्ञासा को शांत भी करते थे। बढती उम्र के साथ उनका ज्ञान तो बढ रहा था,साथ ही उनके तर्क भी प्रभावी होते जा रहे थे।
सन् 1880 में नरेंद्र,केशवचंद्र सैन की नवविधान संघ में सामिल हुए।केशवचंद्र सैन ईसाई से हिंदू धर्म में रामकृष्ण परमहंस के प्रभाव से परिवर्तित हुए थे।नरेंद्र सन् 1884 में कुछ बिंदु पर,एक फ्री मसोनरी लॉज ओर साधारण ब्रह्म समाज जो एक ब्रह्म समाज का ही एक अलग संघ था,इस संघ का नेतृत्व केशवचंद्रसैन और देवेंद्रनाथ टैगोर के हाथ में था और वे इस संघ में जुडे थे। सन् 1881 -1884 के दौरान “सेन्स बैड ऑफ होप” में भी सक्रिय रहे।जो शराब और धूम्रपान पीने से युवानों को हतोस्ताहित करता था।
स्वामी विवेकानंद को ईश्वर के दर्शन करने के लिए क्या – क्या कष्ट उठाने पडे
बढते वक्त के साथ साथ नरेंद्र की इश्वर के बारे में जानने की प्रबल इच्छा भी बढती गई।वे ब्रह्मसमाज के साथ जुडे थे,किन्तु उनके ईश्वर के प्रत्ये पूजा-अर्चना,भजन और प्रार्थनाओ के तरीके नरेंद्र की ईश्वर के बारे में जानने की जिज्ञासा को शांत न कर पाया।
नरेंद्र को ब्रह्म समाज के प्रमुख देवेंद्रनाथ टैगोर से मिलने का मोका मिला,नरेंद्र हर बार ईश्वर के बारे में जानने के लिए साधु संतो को प्रश्न पूछा करते थे,इसी तरह देवेंद्रनाथ टैगोर को भी ईश्वर के बारे में पूछा-” क्या आपने इश्वर को देखा हे” ?तब उन्होंने प्रश्न का उत्तर नही दिया बल्की,नरेंद्र को कहा की तुम्हारी आखों में ईश्वर के बारे में जान ने की जो जिज्ञासा है वो देखकर तुम ईश्वर के दर्शन कर सकोगें।नरेंद्र को वहा पर भी कुछ फायदा नहीं हुआ ओर फिर से ईश्वर को ढूंढने की खोज जारी रखी।
स्वामी विवेकानंद को रामकृष्ण परमहंस कब और कैसे मिले
नरेंद्र के एक रिश्तेदार थे,उनका नाम था रामचंद्र दत्त।रामचंद्र दत्त रामकृष्ण परमहंस के अनन्य भक्त थे।नरेंद्र उनसे अपने जीवन के बारे में और अपनी मन की बात बताते थे।रामचंद्र ने एक बार नरेंद्र से पूछा की तुम क्या बनना चाहते हो और तुम्हारा लक्ष्य क्या है – उच्च शिक्षा हासिल करना,पद प्रतिष्ठा के फिर पैसा प्राप्त करना, समाज सुधारना या देश को आजाद कराना।नरेंद्र ने कहा की,मेरा मकसद तो बस ईश्वर को प्राप्त करना है। मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हो सकता है क्या?
रामचंद्र दत्त ने नरेंद्र को गुरु का दिशा – दर्शन कराया
नरेंद्र की ईश्वर के प्रत्ये जिज्ञासा देखकर रामचंद्र दत्त ने उनको गुरु का दिशा – दर्शन कराया।उन्होंने कहा की आपका प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिए आपको दक्षिणेश्वर जाना होगा।इस धरती पर एक ही व्यक्ती है जो इस प्रश्न का उत्तर सही मायनों में दे सकते हैं।गुरु के बारे में सुनते हैं ,नरेंद्र को गुरु के बारे में जानने की तडप जाग उठी।नरेंद्र को गुरु रामकृष्ण परमहंस तो बाद में ही मिले वो एक अलौकिक संयोग है।
स्वामी विवेकानंद सन् 1877 से 1879 के दौरान अपने परिवार के साथ रायपुर में रहे।इसके दौरान उनकी शिक्षा बाधित हो गई थी,किंतु वे स्वाध्याय में इतने लीन हो गए थे,की वे इतिहास,दर्शन ओर धार्मिक ज्ञान में निपुण हो गए।
सन् 1879 में वापस कलकत्ता लौटे।वहां उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज में एंट्रेस एक्जाम दिया और उन्होंने एक्जाम में प्रथम स्थान हासिल किया।प्रेसीडेंसी कॉलेज के बाद उन्होंने जनरल असेंबली इंस्टीट्यूट में दाखला लिया वहां उन्होंने वेस्टर्न हिस्ट्री,वेस्टर्न फिलोसोफी ओर तर्कशास्त्र की पढाई की।एक बार इस कॉलेज के प्रिंसिपल विलियम हेस्टी विलियम “वर्ड्सवर्थ की द एक्सकर्शन” कविता को पढाते हुए भाव – समाधी की व्याख्या कर रह थे।तब नरेंद्र ने विलियम हेस्टी से पूछा की आप एसे व्यक्ती के बारे में जानते हो जिसने ईश्वर को देखा हो।विलियम हेस्टी ने बताया की इस धरती पर सिर्फ एक ही व्यक्ती हैं,जिसने ईश्वर के दर्शन किए हो,वो हे दक्षिणेश्वर के संत रामकृष्ण परमहंस।
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित नाटककार और फ्रांसी लेखक रोमा रोला ने नरेंद्र के बारे में कहा था की -” उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असंभव है,वे जहां भी गए प्रथम ही रहें।सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी”।
नरेंद्र नाथ और रामकृष्ण परमहंस का प्रथम मिलन का अलौकिक संयोग
नरेंद्र एम.ए की पढाई करने के लिए अपने नाना के मकान में अकेले रेहते थे।नरेंद्र नाथ एक अच्छा छात्र और हिंदू धर्मग्रथो में रुचि रखने वाले थे।उन्होंने स्थानक की परीक्षा उत्तीर्ण की ओर वे युवावस्था में समा गए थे।उनका जुकाव नास्तिक प्रवृति की ओर होने लगा।अपने युवावस्था के दौरान भारतीय संस्कृति में ईश्वर के प्रत्ये उनकी दृढ आस्था,पाश्चात्य दार्शनिको में विश्वास रखने के कारण उनको दर्द भरे वक्त से गुजरना पडा था।
किंतु,उनको शीघ्र ही गुरु रामकृष्ण परमहंस के साथ मिलन होने वाला था और पुनःआध्यात्मिकता के प्रति श्रद्धा की जागृति होने वाली थी।
नरेंद्र उनके नाना के घर में रह रहे थे तब एक बार स्वामी रामकृष्ण परमहंस उस मोहल्ले में आए थे और सुरेंद्रनाथ मित्रा के वहां रुके थे।सुरेंद्रनाथ मित्रा रामकृष्ण परमहंस के भक्त थे। उस के घर पर सत्संग हो रहा था।
स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस |
ये घडी बडी रोमांचक होती जा रहीं थीं।आखिरकार नवंबर 1881 का वो दिन आया जब इस धरती पर उतरे दो देवदूतों का मिलन होने जा रहा था।सुरेंद्र नाथ मित्रा के घर में सत्संग हो रहा तब,भजन गाने के लिए नरेंद्र को बुलाया था।नरेंद्र जब भजन गाते तब उनकी आवाज से लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे।
सुरेंद्रनाथ मित्रा के घर पर जब नरेंद्र नाथ आए और भजन गा रहे थे तब उनकी मंत्रमुग्ध कर देनेवाली आवाज से रामकृष्ण परमहंस मंत्रमुग्ध हो गए थे।जब तक नरेंद्र गाते रहे तब तक स्वामी रामकृष्ण उनको एकटक निहारते ही रहे।जो महापुरुष भूत,वर्तमान और भविष्य को एक साथ देख सकता वो भला अपने शिष्य को नहीं पहचानता।जब सत्संग की समाप्ति के बाद रामकृष्ण दक्षिणेश्वर जा रहे थे तब नरेंद्र को कहा की तुम एक बार दक्षिणेश्वर जरूर आना।
गुरु रामकृष्ण परमहंस के प्रथम मिलन के बाद नरेंद्र के जीवन में क्या हुआ
गुरु के प्रथम मिलन के बाद नरेंद्र के जीवन में एक नया मोड आया।नरेंद्र को उनके गुरु रामकृष्ण ने समय रहते ही परख लिया था।नरेंद्र को शरुआत में अपने गुरु के प्रती आस्था नहीं थी।प्रथम मुलाकात में गुरु भाव – विभोर थे,किंतु शिस्य बेपरवाह था।क्योंकि,नरेंद्र आस्था को भी तर्क की कसोटी पर कसते थे।
नरेंद्र कुछ समय के लिए संदेहवादी भी हो गए थे।एक दिन माघ की सर्द रात में वे ईश्वर के बारे में चिंतन कर रहे थे।उन्हे एक विचार आया की रवींद्रनाथ टैगोर के पिताश्री देवेंद्रनाथ ठाकुर गंगा नदी में नाव पर बैठकर साधना करते हैं।उनको जाकर पूछता हु ईश्वर के बारे में।
वे तत्काल गंगा घाट गए और तेरते हुए नाव में पोहच गए।उन्होंने महर्षि से पूछा की आप तो पवित्र गंगा में रेहकर इतने समय से साधन कर रहे हो।क्या आपको ईश्वर के दर्शन प्राप्त हुए।महर्षि इस बात का उत्तर नही दे सके ओर नरेंद्र को इतना कहा की तुम बडे योगी बनोगे।
नरेंद्र ने महर्षि से कहा की आप मेरी बात छोडीए,क्या आपको ईश्वर के दर्शन प्राप्त हुए?इस बात का उत्तर महर्षि के पास नही था।इसलिए नरेंद्र फिर वापस लोट गए।नरेंद्र उनके कमरे में आते है और विचार करते है की जब महर्षी जेसे व्यक्ति को ईश्वर का दर्शन न हुए, तब मेरे जेसे व्यक्ति ईश्वर के दर्शन कहा से प्राप्त कर सकेंगे।
अगले दिन नरेंद्र को रामकृष्ण देव की याद आई।उससे पहले रामचंद्र दत्त और विलियम हेस्टी ने भी कहा था गुरु रामकृष्ण परमहंस के बारे में और रामकृष्ण देव के दर्शन प्राप्त करने के लिए दक्षिणेश्वर जाने को कहा था।
नरेंद्र उनके साथियों के साथ दक्षिणेश्वर पहुंच गए।उन्हे देखा की रामकृष्ण परमहंस जी भक्तो के साथ बैठे हैं ओर वे कुछ विषय पर आनंदपूर्वक चर्चा कर रहे हैं।नरेंद्र को देखकर रामकृष्ण अति प्रसन्न हुए।उनको कहा की तुम आ गए,अच्छा किया।
नरेंद्र ने अपने आदत के अनुसार गुरु से प्रश्न पूछा की आपको ईश्वर के दर्शन हुए।गुरु ने कहा की, हा मेने ईश्वर के दर्शन किए है, जेसे में तुम्हे देखा रहा हु इसी तरह मेने ईश्वर को देखा हे और उससे बात भी की हैं।गुरु रामकृष्ण परमहंस महाकाली की भक्त थे।गुरु का उत्तर सुनकर नरेंद्र की ईश्वर के बारे में जानने की जिज्ञासा शांत हुई।
नरेंद्र को सरुआत में रामकृष्ण परमहंस तंत्र मंत्र और जादू करने वाले लगे।क्युकी वे बचपन से ही धर्म आस्था को तर्क की कसोटी पर कसते थे।फिर इन सभी आसकताओं की बीच मन में गुरु के प्रति येसी लगन लगी की उनके पास दोबारा जाने के लिए खुद को रोक नही पाए।नरेंद्र अपने गुरु के पास जाने लगे और अपनी जिज्ञासा को शांत करते रेहते थे।बाद में अपने जीवन में ईश्वर के बार में जानने की जो जिज्ञासा थी वो शांत हुई,इसीलिए नरेंद्र ने गुरु के रूप में स्वामी रामकृष्ण परमहंस को अपना गुरु बनाया और उससे शिक्षा लेनी प्रारंभ कर दी।नरेंद्र अपने गुरु के छत्रछाया में सन् 1881 – 1886 इन पांच साल तक “अद्वैत वेदांत” का ज्ञान प्राप्त किया।
नरेंद्र के जीवन में उनके गुरु आने से पहले वह आम इंसान की तरह अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे।उनके जीवन में गुरु के आने के बाद गुरु रामकृष्ण परमहंस ने उनके जीवन में ज्ञान की ज्योत जलाने का काम किया था।फिर, उनकी मुसीबते भी दूर होने लगी थी।
स्वामी विवेकानंद के अनुसार शिक्षा की परिभाषा
स्वामी विवेकानंदे धर्म गर्थों,वेद, उपनिषद,पुराण आदि का अध्ययन किया था और इन सबसे अच्छी महारथ भी हासिल की थी।स्वामी विवेकानंद को महान शिक्षा – शास्त्री के रूप में माना जाता था।
उस समय की “मैकाले”द्वारा रचायेली शिक्षा और उस समय की प्रचलित अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के विरोधी थे स्वामी विवेकानंद।इन शिक्षा व्यवस्था के उद्देश्य के कारण सिर्फ बच्चों की संख्या बढती थी।इस शिक्षा के कारण बच्चों के सर्वागी विकास नहीं होता था।
➜स्वामी विवेकानंद एसी शिक्षा चाहते थे की बच्चो के सर्वांगी विकास हो,बच्चो की मानसिक,शारीरिक और बौद्धिक विकास हो ओर बच्चे आत्मनिर्भर बने।
➜स्वामी विवेकानंद ने तत्कालीन शिक्षा वव्यस्था को मात्र ज्ञान ढूढने वाली शिक्षा व्यवस्था कहा था।उन्होंने कहा की यह शिक्षा व्यवस्था बेकार है।यह शिक्षा बच्चों की क्षमता का विकास नहीं करती, सृजन चिंतन ,चरित्र का निर्माण, मस्तिक की शक्ति नहीं बढाती।
➜स्वामी विवेकानंदे प्रचलित शिक्षा को “निषेधात्मक शिक्षा” की संज्ञा दी थी।उन्होंने कहा की आप उस व्यक्ति को शिक्षित मानते हो जिसने कुछ परीक्षा उत्तीर्ण कर ली और एक अच्छा वक्ता बनकर भाषण देने लगा हो।किन्तु,वास्तविकता ये है की जो शिक्षा व्यक्ति को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं करती,समाज सेवा की भावना विकसीत नहीं करती,चरित्र का निर्माण नहीं करती,शेर जैसा साहस नहीं पैदा करती,जिस शिक्षा व्यक्ति को अपने फायदे और स्वार्थ के लिए तैयार करती हो एसी शिक्षा से क्या लाभ?
➜स्वामी विवेकानंदे कहा की आज हमारे देश सहित समस्त विश्व की जो स्थिती है, चारे और भ्रष्टाचार, हिंसा,आतंकवाद,निराजकता,नशाखोरी, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाना आदि कारणों के कारण मानवजाती को अपनी संस्कृति और सभ्यता समक्ष अस्तित्व का संकट दिखाए दे रहा है।इसका कारण है,मानव ने अपनी संस्कृती की जो अवेहलना की है,अपनी संस्कृती के मूल्यों को नहीं समझा,अपनी संस्कती का अनुकरण करने की बजाई पश्चिमीकरण तरफ विकास की यात्रा की है।इसी कारण मानवजाती को हिंसा,आंतकवाद,भ्रष्टाचार जेसे परिस्थितिओ का सामना करना पड रहा है।
➜अब मानवजाती को अपनी संस्कृति का अनुकरण करने की आवश्यकता है।विकास की इस यात्रा के कारण मानवजाती शिक्षा प्रणाली के मानवीय आधारभूतो को भूल चुका हैं।
➜उन्होंने कहा की अब हमे एसी शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता है जो मनुष्य को मानव बनाने के दाहीत्व की फरज बनाती हो,अच्छी शिक्षा पाकर बच्चे अपने समाज में अपना दाहित्व ओर अपना स्तर निर्धारित कर सके।समाज के दरेक वयक्ति को अच्छी शिक्षा प्रदान कर सके, निन्मतम वर्ग के लोगो को भी शिक्षा प्राप्त करने का हक मिले और निन्मतम वर्ग के लोको समाज के प्रति जागृत हो ओर उनकी प्रगती हो ओर वो लोग भी देश के विकास में अपना योगदान दे सके।यदि जिस बच्चे स्कूल तक न आ पाए रहे हो तब शिक्षक को उन तक पोहचना चाहिए।
➜स्वामी विवेकानंद सार्वभौमिकता शिक्षा प्रदान करने के समर्थक थे।वे शिक्षा में किसी प्रकार के भेदभाव के विरुद्ध थे।वो भली भाती जानते थे कि जिस व्यक्ति या जिस समाज शिक्षा प्राप्त करने से वंचित रह गया हो,तो देश का संपूर्ण विकास होना असंभव हैं।
स्वामी विवेकानंद के शिक्षा के बारे में आधारभूत सिद्धांत
1.शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिसे बच्चे का मानसिक, शारीरिक ,बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास हो।
2.बच्चे का चरित्र का निर्माण हों,मन का विकास हो ओर बच्चे आत्मनिर्भर बन सके।
3.बालक एवं बालिका को समान शिक्षा मिलनी चाहिए।
4.देश की आर्थिक प्रगति के लिए तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था हो।
5.बच्चे अपने कमाई के साधन खुद तैयार कर सके।
6.कोई भी परिस्थिति जीवन में आए उसमें बच्चे संघर्ष के लिए तैयार हो।बच्चे सहनशीलत बन सके।
7.पाठ्यक्रम में लौलिक एवं पारलौलिक दोनों विषयों को स्थान देना चाहिए।
8.ज्ञान मनुष्य के भीतर होता हो। विचारों का सामंजस्य कर सकता हो।
9.छात्र स्वयं अपने परिश्रम से ज्ञान की खोज कर सके।
10.शिक्षक का कार्य मार्गदर्शन करना है।
11.स्त्री को शिक्षा विशेल बल पर दिया जाए।
12.बच्चे को वेदांत ओर पश्चिम विज्ञान का ज्ञान मिल सके इसी कारण इस विषय पर भी ध्यान देना चाहिए।
13.व्यक्ति को अपनी रुचि को महत्व देना चाहिए।
14.मानव एवं राष्ट्रीय शिक्षा परिवार से ही शुरू करनी चाहिए।
15.धार्मिक शिक्षा आचरण एवं संस्कारो द्वारा देनी चाहिए।
➜ स्वामी विवेकानंद के शिक्षा के बारे में विचार मनुष्य के निर्माण की प्रकिया के लिए हैं,न की किताबी ज्ञान पर।
➜जिस शिक्षा से संयम द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह हो, विकास वश में लाया जाए ओर वह फलदायक होता हो वह शिक्षा कहलाने के योग्य हैं।
➜जिस शिक्षा से मनुष्य आपस में लडने लगे, ऐसी बहुत सी बात दिमाग में ठूस दी जाए और वे बेकार हो ओर जीवन भर उस बात के लिए व्यक्ति पश्चताते रहे एसी शिक्षा नही होनी चाहिए।
➜हमारी सभी प्रकार की शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होना चाहिए। यदी व्यक्ति के भीत्तर कुछ सार न हों तो बाहरी रंग चढाने से क्या फायदा?
आखिरकार “शिक्षा का उद्देश्य तो मनुष्य का विकास ही हैं”।
✧ conclusion ✧
अगर आप स्वामी विवेकानंद की जीवनी पढ़ना चाहते हो, तो आप इस किताब को अवश्य खरीदे।