रामकृष्ण परमहंस का जीवन परिचय
रामकृष्ण परमहंस के बारे में
नाम | रामकृष्ण परमहंस |
वास्तविक नाम | गदाधर चटोपाध्याय |
जन्म दिनांक | 18 फरवरी,1836 |
जन्म स्थान | कामारपुकूर गांव, हुगली जिला, पश्चिम बंगाल |
पिता का नाम | खुदीराम चटोपाध्याय |
माता का नाम | चंद्रमणि देवी |
भाई का नाम | रामकुमार चटोपाध्याय |
पत्नी का नाम | शारदामणि मुखोपाध्याय(शारदादेवी) |
धर्म | हिंदू |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
कर्म | संत, उपदेशक |
कर्मस्थान | कलकत्ता |
खिताब/सम्मान | परमहंस |
शिष्य | स्वामी विवेकानंद,स्वामी ब्रह्ममानंद |
अनुयायी | विजयकृष्ण गोस्वामी,ईश्वरचंद्र विद्यासागर |
मृत्यु दिनांक | 16 अगस्त,1886 |
मृत्यु स्थान | कोसीपोर,कलकत्ता |
स्मारक | कामारपुकूर गांव, हुगली जिला, पश्चिम बंगाल |
रामकृष्ण परमहंस का जन्म
रामकृष्ण परमहंस का जन्म 18 फरवरी, 1836 को बंगाल के हुगली जिले के कामारपुकुर गांव में एक साधारण ब्राह्मण परिवार में हुआ था।बचपन में उनका नाम गदाधर चट्टोपाध्याय था।पिता का नाम खुदीराम चटोपाध्याय और माता का नाम चंद्रमणि देवी था।
उनके शिष्योंके मुताबिक ऐसा कहा जाता हैं की, रामकृष्ण परमहंस का जन्म के लेकर पहले से ही उनके माता – पिता को अलौलिक घटनाओं का अनुभव हुआ था।एक बार उनके पिता गया की तीर्थयात्रा पर जा रहे थे तब उनको भगवान विष्णु का दृष्टांत हुआ ओर उसमे भगवान विष्णुने कहा की तुम्हारा अगला पुत्र होगा उसके रूप में,में भगवान गदाधर(विष्णु का अवतार)के रूप में जन्म धारण करुगा।
दूसरी ओर उनकी माता को भी ऐसा अनुभव हुआ था, उन्होंने शिव मंदिर में अपने गर्भ में रोशनी प्रवेश करते हुए देखा।उसके कुछ समय के बाद चन्द्र देवी ने गदाधर को जन्म दिया।बचपन में गदाधर सहज और विनयशील थे साथ ही उसकी मुस्कान से हर कोई मंत्रमुग्ध हो जाता था।उसके ऊपर पिता की सादगी और धर्मनिष्ठ का बहुत प्रभाव पडा।
परिवार
उनके परिवार में माता चन्द्रा देवी,पिता खुदीराम चटोपाध्याय और उनके बडे भाई थे।उनका नाम रामकुमार चट्टोपाध्याय था।रामकुमार कलकत्ता के एक पाठशाला में संचालक थे।
जब गदाधर 7 वर्ष के हुए तब उनके पिता की मुत्यू हो गई थी।जिसके कारण उनके परिवार का पालन पोषण करना बहुत कठिन हो गया था।आर्थिक कठिनाई आई।फिर भी बालक गदाधर का साहस कम नहीं हुआ।फिर,उनके बडे भाई गदाधर को अपने साथ कलकत्ता ले गए।
शिक्षा
गदाधर को पढने के लिए गांव के स्कूल में भर्ती कराया।लेकिन एक आम बच्चे की तरह गदाधर को स्कूल में जाना, पढना,लिखना बिलकुल पसंद नहीं था।बचपन से ही उनको आध्यात्मिकता में और भारतीय अध्यात्म से जुडे नाटकों में अधिक रुचि थी।उन्हें हिंदू देवी- देवताओं के मिट्टी की मूर्तियों को बनाना पसंद था।वह रामायण, महाभारत,पुराणों और अन्य साहित्यों को पुजारियों और ऋषियों से सुनकर हृदय लगाते थे।उनको प्रकृति से ज्यादा लगाव था,इसलिए ज्यादा समय बागों में और नदी तटों पर व्यतीत करते थे।
जब बंगाल में सब तरफ लोग क्रिश्चियन धर्म की ओर ज्यादा आकर्षित होने लगे थे,तब हिंदू धर्म पूरी तरह से खतरे में था, उस समय रामकृष्ण परमहंस ने हिंदू धर्म को खतम होने से बचाया और साथ ही हिंदू धर्म को इतना शक्तिशाली बनाया की लोगो को फिर से एक बार हिंदू धर्म अपनी और आकर्षित करने लगा।
दक्षिणेश्वर आगमन
निरंतर प्रयास के बाद भी गदाधर का मन शिक्षा में नहीं लग पा रहा था,इसलिए उन्हें पढना छोड दिया।बाद में, उनके बडे भाई रामकुमार ने गदाधर को अपने काम में हाथ बटाने के लिए अपने साथ कलकत्ता ले गए।सन् 1855 में राणी रासमणी ने दक्षिणेश्वर में मां काली का मंदिर बनवाया था।मंदिर के पुजारी के रूप में रामकुमार चट्टोपाध्याय को नियुक्त किया गया।रामकृष्ण को देवी प्रतिमा को सजाने का दहित्व सोपा गया था।1856 में रामकुमार के मुत्यू के बाद रामकृष्ण को काली मंदिर में पुरोहित के तौर पर नियुक्त किया गया था।
रामकृष्ण मां काली के पूजा अर्चना में ज्यादा ध्यान देने लगे थे।लेकिन,उनके मन में एक प्रश्न हमेशा उठता था की,वास्तव में इस मूर्ति में कोई तत्व हैं?क्या सचमुच यही आनदमयी मां है।या यह सब स्वप्न मात्र है।इन सब प्रश्न के कारण विधिपूर्वक मां की पूजा-अर्चना करना कठिन हो गया था।कभी मां को भोग ही लगाते रेहते,तो कभी घंटो तक आरती करते रहते थे।कभी मां की प्रतिमा के समक्ष रोने लगते थे और कहते थे की,”मां ऑ मां मुझे दर्शन दे,दया करो देखो जीवन का एक और दिन व्यर्थ चला गया।क्या दर्शन नहीं दोगी?नहीं नहीं दो जल्दी दर्शन दो!”इन सब कारण के बीच एक पुजारी की जो जिम्मेदारियां होती थी,वो भी भूल जाते थे।
रामकृष्ण परमहंस को माता के दर्शन किस रूप में हुआ
रामकृष्ण मां काली की प्रतिमा को अपनी माता और ब्रह्मांड की माता के रूप में देखने लगे।ऐसा कहा जाता हैं,की रामकृष्ण को मां काली के दर्शन ब्रह्मांड की माता के रूप में हुआ था।रामकृष्ण इसका वर्णन करते हुए केहते हैं:- घर, द्वार,मंदिर सब कुछ अदृश्य हो गया।जेसे कही कुछ भी नही था।ओर मेने एक अनंत तिरविहीन एक अलौकिक सागर देखा,यह चेतना का सागर था।जिस दिशा में भी मेने दूर दूर तक जहां भी देखा बस उज्ज्वल लहरे ही दिखाई दे रही थी,जो एक बाद एक मेरी तरफ आ रही थी।
शारदादेवी से विवाह
एसी अफवाह फैल गई थी ,की दक्षिणेश्वर में आध्यात्मिक साधना के कारण स्वामी रामकृष्ण का मानसिक संतुलन खराब हो गया है।इन सब कारण के बीच रामकृष्ण की मां और उनके बडे भाई ने रामकृष्ण का विवाह करने का निर्णय लिया।उनका मानना था की विवाह करने से रामकृष्ण का मानसिक संतुलन ठीक हो जाएगा और शादी के बाद आए जिम्मेदारियां के कारण उनका आध्यात्मिकता से ध्यान हट जायेगा।रामकृष्ण ने खुद उन्हें यह कहा की वे उनके लिए कन्या जयराम बाटी(जो कामरपुकूर से 3 मिल दूर उत्तर पूर्व की दिशा में हैं)में रामचंद्र मुखर्जी के घर पा सकता हे। सन् 1859 में जब रामकृष्ण की उमर 23 वर्ष की थी और शारदामणि मुखोपाध्याय की उमर 5 वर्ष की थी तब उनका विवाह संपन्न हुआ था।लेकिन,उनके मन में स्त्री को लेकर केवल एक माता भक्ति का ही भाव था,इनके मन में कोई सांसारिक जीवन के प्रति कोई उत्साह ही नहीं था।इसलिए उन्होंने घर परिवार छोडकर स्वयं को मां काली के चरणों में सोप दिया।विवाह के बाद शारदामणि मुखोपाध्याय जयराम बाटी में रेहती थी।18 वर्ष के होने के बाद वो रामकृष्ण के पास दक्षिणेश्वर में रेहने लगी।रामकृष्ण तब संन्यासी का जीवन जीते थे।
संत से परमहंस बनने की कहानी
रामकृष्ण जी के परमहंस उपाधि प्राप्त करने के पीछे कई कहानियां हैं।इन उपाधि के कारण रामकृष्ण को परमहंस बना दिया था।ओर रामकृष्ण ने साधारण बालक नरेंद्र को भी स्वामी विवेकानंद बना दिया।
परमहंस की उपाधि किसे मिलती हैं?
ये उपाधि उनिको मिलती हैं जो अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेते हैं।जिसके पास असीम ज्ञान का भंडार हो।एसे परमहंस के चित्त में ईश्वर के सिवा और कुछ भी नही होता।परमहंस एसे ही कोई नही बन पाता उसके लिए सबसे पेहले अपने मन पर काबू पाना होता है। एसे संन्यासी किसी भी कर्मकांड में विश्वास नहीं रखते।
परमहंस होना है एक यात्रा हैं।
एक मानव को ईश्वर तक पोहचनें की एक यात्रा हैं।परमहंस होना इतना आसान नहीं होता,उसके लिए सब कुछ छोड के संन्यासी बनना पडता हैं।संन्यासी होने से पहले कर्मयोगी बनना पडता हैं।यात्रा का रास्ता कर्मयोग से ही शुरू होता है।ध्यान,साधना और विभिन्न प्रकार की समाधियों को पार कर के परमहंस होने तक पोहचता हैं।एक सामान्य मनुष्य के मन की तरह उनका मन उडता नहीं।उसका मन शांत पानी की तरह होता है।उसके मन में कोई भाव रेहता हैं तो सिर्फ ईश्वर के प्रति ही भाव रेहता हैं।
वह संन्यासी छ प्रकार के कर्मो से रहित होता है।सर्दी,गर्मी,सुख,दुःख,मान और अपमान इन छ कर्मो से दुर रेहता हैं।उस संन्यासी का रूप,शब्द,स्पर्श,गंध और रस इन पांच से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं होता।
गुरु तोतापुरी के साथ
गुरु तोतापुरी और रामकृष्ण परमहंस |
रामकृष्ण मां काली के एक भक्त थे,जो मां काली से एक पुत्र के रूप में जुडे हुए थे।जिनसे उन्हें अलग कर पाना ना मुमकिन था।जब रामकृष्ण मां के संपर्क में जाते थे तब वे नाचने लगते थे,गाने लगते थे और अपने उत्साह को दिखाने लगते थे।जब मां से संपर्क टूट जाता था तब वो एक बच्चे की तरह रोने लगते थे।उनकी भक्ति के चर्चे सभी जगह थे।
एक दिन रामकृष्ण हुगली नदी के तट पर बैठे थे,तब महान संत तोतापुरी उस रास्ते पर से जा रहे थे।गुरु तोतापुरी रामकृष्ण के पास आए और देखा कि रामकृष्ण मां काली के भक्ति में लीन हैं।गुरु ने देखा कि रामकृष्ण में इतनी शक्ति और संभावना है की वो परम ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।किंतु,वो अपनी भक्ति में ही डूबे रेहते थे।
तोतापुरी रामकृष्ण के पास आए और उनको समजाने की कोशिश की,”आप क्यों सिर्फ अपनी भक्ति में ही इतने लीन हैं?आपके अंदर इतनी क्षमता है की आप चरम सीमा को छू सकते हो।रामकृष्ण ने कहा की,में सिर्फ मां काली को ही चाहता हु,बस!वह एक बच्चे की तरह थे,जो सिर्फ अपनी मां से ही चाहता था।इसलिए तोतापुरी ने उनके साथ बहस करना ठीक नहीं समजा।यह बिलकुल भिन्न अवस्था होती हैं।रामकृष्ण सिर्फ मां काली को समर्पित थे।इसलिए गुरु तोतापुरी जिस परमज्ञान की बात कर रहे थे उसमे उनकी कोई दिलचस्पी नही थी।तोतापुरी ने कही तरीके के से उन्हें समझाने की कोशिश की लेकिन रामकृष्ण समझने को तैयार ही नहीं थे।तोतापुरी के साथ रामकृष्ण बैठना भी चाहते थे, क्यूंकि तोतापुरी की मोजुदगी ही कुछ ऐसी थी।
तोतापुरी ने देखा कि रामकृष्ण अपनी भक्ति में लगे हुए है।फिर वह बोले,”यह बहुत आसान है।फिलहाल आप अपनी भावनाओं को शक्तिशाली बना रहे है,अपने शरीर को समर्थ बना रहे हैं,अपने भीत्तर के रसायन को शक्तिशाली बना रहे है।लेकिन,आप अपनी जागरूकता को शक्ति नहीं दे रहे है।आपके पास जरूरी ऊर्जा है उससे आपको सिर्फ अपनी जागरूकता को सक्षम बनाना हैं।”
रामकृष्ण तोतापुरी के बात मान गए और बोले,आपकी बात ठीक है,में अपनी जागरूकता ओर शक्तिशाली बनाऊंगा और अपनी पूरी जागरूकता में बैठूंगा।
मां काली के दर्शन होते ही,फिर से मां की भक्ति में आनंदविभोर हो गए।वह जितनी भी बार बैठते तब मां काली को ही देखते थे।फिर तोतापुरी बोले,”अगली बार जब भी आपको मां काली दिखे,तब आपको तलवार लेकर उनके टुकडे करने हैं।रामकृष्ण ने पूछा मुझे तलवार कहां से मिलेगी?वही से जहां से आप मां काली को लाते हैं।अगर आप पूरी तरह से मां काली को बनाने में समर्थ हैं,तो आप एक तलवार क्यों नहीं बना सकते?आप ऐसा कर सकते हो।अगर आप देवी को बना सकते हो तो उसे काटने के लिए तलवार क्यों नही बना सकते?तैयार हो जाइए।
रामकृष्ण बैठे।जब काली आई , तब वे परमानंद में डूब गए और तलवार,जागरूकता के बारे में सब कुछ भूल गए।फिर तोतापुरी ने उनसे कहा की,इस बार जैसे ही काली आएगी,उन्होंने एक शीशे का टुकडा उठाते हुए कहा,शीशे के इस टुकडे से में आपको इस शरीर के जगह पर आघात करूंगा जहां पर आप फसे हुए होगे।में जब उस जगह पर आघात करूगा तब उस रक्त से तुम तलवार बनाकर काली पर वार करना और उनके टुकडे कर देना।
रामकृष्ण फिर से साधना में बैठे और ठीक जिस समय रामकृष्ण परमानंद में डूबने वाले थे,जब मां काली के दर्शन हुए तब ,तोतापुरी ने शीशे के टुकडे से रामकृष्ण के माथे पर गहरा चीरा लगा दिया। उसी समय,रामकृष्ण ने कल्पना में तलवार बनाई और काली के टुकडे कर दिए,इस तरह मां और मां से मिलने वाले परमानंद से मुक्त हो गए।अब रामकृष्ण वास्तव में एक परमहंस और पूर्ण ज्ञानी बन गए।उससे पेहले वह एक भक्त थे,प्रेमी थे, उस देवी मां के बालक थे जिन्हे उन्होंने खुद उत्पन्न किया था।
रामकृष्ण ने तोतापुरी से अद्वैत वेदांत का ज्ञान प्राप्त किया था।इसी तरह गुरु तोतापुरी ने रामकृष्ण को अपनी इन्द्रिय पर नियंत्रण करना सिखाया।उन्होंने कहीं सिद्धियों को प्राप्त किया।अपनी इन्द्रियों को वश में किया और एक महान संत,विचारक और एक उपदेशक के रूप में कई लोगो को प्रेरित किया।उन्होंने निराकार ईश्वर की उपासना पर जोर दिया।मूर्ति पूजा को व्यर्थ बताया। संन्यास ग्रहण करने के बाद उनका नाम रामकृष्ण परमहंस हुआ।इसके बाद उन्होंने ईस्लाम, क्रिश्चियन धर्म और भी धर्मों की साधना की ओर एक एसे निश्चय पर आए की सभी धर्मों से ईश्वर की भक्ति और प्राप्ति हो सकती हैं।ये सभी एक मात्र साधन हैं।
भक्तों का आगमन
समय जैसे जैसे व्यतीत होता गया उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यास और सिद्धियों के समाचार तेजी से फैलने लगे।दक्षिणेश्वर का मंदिर उद्यान शीघ्र ही भक्तो और भ्रमणशील संन्यासी का प्रिय आश्रय स्थान हो गया।कुछ बडे बडे विद्वान एवं प्रसिद्ध वैष्णव और तांत्रिक साधक जैसे नारायण शास्त्री,पद्मलोचन तारकालकार,वैष्णवचरण और गौरीकांत तारकभूषण आदि उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त करते रहे।वह शीघ्र ही प्रसिद्ध विचारकों के संपर्क में आए जो बंगाल में विचारों का नेतृत्व कर रहे थे।
केशवचंद्र सेन,विजयकृष्ण गोस्वामी, ईश्वरचंद विद्यासागर का नाम लिया जा सकता है।इससे अतिरिक्त साधारण भक्तो का दूसरा वर्ग था।महत्वपूर्ण व्यक्ति रामचंद्र दत्त,गिरीशचंद्र घोष, बलराम बोस, महेंद्रनाथ गुप्ता (मास्टर महाशय) ओर दुर्गाचरण नाग थे।
स्वामी विवेकानंद उनके परम शिष्य थे।
बीमारी और अंतिम जीवन
रामकृष्ण जीवन के अंतिम दिनों में समाधी में रेहने लगे थे।अतः तन से सिथिल होने लगे।शिष्यों द्वारा स्वास्थ्य पर ध्यान देने की प्रार्थना पर अज्ञानता जानकर हस देते थे।इनके शिष्य इन्हें ठाकुर नाम से पुकारते थे।
स्वामी विवेकानंद कुछ समय के लिए हिमालय के किसी एकांत स्थान पर तपस्या करना चाहते थे।आज्ञा लेने जब गुरु के पास गए तब रामकृष्ण ने कहा – वत्स हमारे आसपास के क्षेत्र के लोग भूख से तडप रहे हे,चारो और ज्ञान का अंधेरा छाया हुआ है,यहां लोग चिल्लाते रहे ओर तुम हिमालय की किसी गुफा में समाधी के आनंद में निमग्न रहो।क्या तुम्हारी आत्मा स्वीकार करेगी?इससे विवेकानंद दरिद्र नारायण की सेवा में लगे रहे।
रामकृष्ण के गले के सूजन को जब चीकित्सक को बताया तब, चिकित्सक ने गले का कैंसर के बारे में बताया और उनको समाधी और वार्तालाप से मना किया तब भी वे मुस्कुराते रहे।चिकित्सा कराने से रोकने पर भी विवेकानंद गुरु का इलाज कराते रहे।चिकित्सा के बावजूद उनका स्वास्थ्य ठीक नही हुआ ओर बिगडने लगा।
मृत्यू
सन् 1886 में गले का कैंसर के कारण श्रावणी पूर्णिमा के अगले दिन प्रातःकाल को रामकृष्ण ने देह त्याग दिया।16 अगस्त का सवेरा होने के कुछ वक्त पेहले आनन्दधन विग्रह श्रीरामकृष्ण इस नश्वर देह को त्यागकर महासमाधि में लीन हो गए।
रामकृष्ण परमहंस द्वारा दी गयी शिक्षा
रामकृष्ण ने अपने पूरे जीवन में एक भी किताब नहीं लिखी और नहीं कोई प्रवचन दिया।वे प्रकृति और रोज के जिंदगी के उदाहरण लेकर और छोटी – छोटी कहानियां के माध्यम से लोगों को सरल भाषा में शिक्षा देते थे।उनके द्वारा दी गई सभी शिक्षा के बारे में उनके शिष्य महेंद्रनाथ गुप्ता ने बंगाली भाषा में “रामकृष्ण कथामित्रा”किताब में लिखा हैं।उनकी दी गई शिक्षा पर सन् 1942 में “द गोस्पेल ऑफ रामकृष्ण”नाम की किताब इंग्लिश में भी प्रकाशित की गई हैं।
कलकत्ता के बुद्धिजीवियों पर उनके विचारो ने जबरदस्त प्रभाव छोडा।उनके आध्यात्मिक आनंदोलन ने अप्रत्यक्ष रूप में देश में राष्ट्रवाद को भावना बढाने का काम किया।उनकी शिक्षा जातिवाद और पक्षपात को नकारती थी।
वे तपस्या,संत संग,स्वाध्याय आदि आध्यात्मिक साधनों पर विशेष बल देते थे।वे कहते थे की आत्मज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रखते हो तो सबसे पहले अहंकार को दूर करो।क्योंकि जब तक अहंकार दूर न होगा,तब तक अज्ञान का परदा नहीं हटेंगा।तपस्या,संतसंग,स्वाध्याय आदि साधनों से अहंकार को दूर करके आत्मज्ञान को प्राप्त करो,ब्रह्म को पहचानो।
रामकृष्ण के अनुसार मनुष्य जीवन का सबसे बडा लक्ष्य हैं,भगवान की भक्ति की प्राप्ति और समाजसेवा।वे कहते थे, कामिनी-कंचन(संसार में मन का आसक्त होना)ईश्वर प्राप्ति के सबसे बडा बाधक हैं।
रामकृष्ण संसार को माया के रूप में देखते थे।उनके अनुसार,अविद्या माया सृजन के काली शक्तियों को दर्शाती हैं।काली शक्ति अर्थात काम,लोभ,लालच,स्वार्थी कर्म, क्रूरता आदि।यह मानव को चेतना के निचले स्तर पर रखती हैं।यह शक्तियां मनुष्य को जन्म ओर मृत्यु के चक्र में बंधने के लिए जिम्मेदार हैं।आध्यात्मिक गुण,निस्वार्थ कर्म,ऊंचे आदर्श,दया, पवित्रता,प्रेम और भक्ति ये सभी विद्या मनुष्य को चेतना के ऊंचे स्तर पर ले जाती हैं।
रामकृष्ण परमहंस के अनमोल विचार
🔹ईश्वर सभी मनुष्य में हे,लेकिन सभी मनुष्य में ईश्वर का भाव होना जरूरी नहीं होता इसलिए हम मनुष्य अपने दुखो से पीडीत हैं।
🔹यदि हम कर्म करते हैं तो अपने कर्म के प्रति भक्ति का भाव होना परम आवश्यक है,तभी वह कर्म सार्थक होता हैं।
🔹सभी धर्म समान हैं,सभी धर्म ईश्वर की प्राप्ति का रास्ता दिखाते।
🔹ईश्वर को सभी रास्तों से प्राप्त किया जा सकता हैं।
🔹अगर मार्ग में कोई दुविधा ना आए तो समझ लेना की आप की राह गलत है।
🔹बिना स्वार्थ के कर्म करने वाले इंसान वास्तव में खुद के लिए अच्छा कर्म करते हैं।
🔹जब तक हमारा जीवन है हमे शिखते रेहना चाहिए।
🔹हमेशा भगवान से प्रार्थना करते रहे की,घन,नाम और आराम जैसी क्षणिक चीजों के प्रति आपका लगाव हर दिन कम से कम होता जाए।
🔹आप बिना गोता लगाये मणि प्राप्त नहीं कर सकते,भक्ति में डुबकी लगाकर और गरहाई में जाकर ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता हैं।
🔹प्रेम के माध्यम से त्याग और विवेक की भावना स्वाभाविक रूप से प्राप्त हो जाती हैं।
🔹भगवान की शरण लो।
🔹नाव जल में रहें,लेकिन जल नाव में नहीं रहना चाहिए।इसी प्रकार साधक जग में रहे,लेकिन जग साधक के मन में नहीं रहना चाहिए।
🔹जिस व्यक्ति में ये तीनो चीजे है उस व्यक्ति भगवान को प्राप्त नहीं कर सकता या भगवान की दृष्टि उस व्यक्ति पर नहीं पड सकती ये तीन चीज हैं,”लज्जा,घृणा और भय”।
🔹दुनिया वास्तव में सत्य और विश्वास का एक मिश्रण हैं।
🔹वह मनुष्य व्यर्थ ही पैदा होता हैं, जो बहुत कठिनाईयों से प्राप्त होने वाले मनुष्य जन्म को यूं ही गवा देता हैं और अपने पूरे जीवन में भगवान का अहसास करने की कोशिश ही नहीं करता।
निष्कर्ष
रामकृष्ण परमहंस मानवता के पुजारी थे।महायोगी, उच्चकोटी के साधक एवं विचारक थे।वे मां काली के भक्त थे।उसका बचपन का नाम गदाधर चट्टोपाध्याय था।सन्यास के बाद उसका नाम रामकृष्ण परमहंस हुआ।
रामकृष्ण ने अपनी इंद्रियों को वश में करके परमहंस की उपाधि प्राप्त की था।एक सामान्य इंसान से परमहंस बनने के पीछे गुरु तोतापुरी और उनके माता – पिता थे।
इस लेख में महान संत रामकृष्ण परमहंस के महत्वपूर्ण जीवन के बारे में जानकारी दी गई हैं।महान संत बनकर स्वामी विवेकानंद को एक सामान्य बालक नरेंद्र से स्वामी विवेकानंद बना दिया। उस महान स्वामी विवेकानंद ने पूरे विश्व में भारत की संस्कृति,वेदांत,ज्ञान,धर्म को फैलाया और विश्व की नजरों में भारत को प्रसिद्ध किया।
हमारी भूमि पर ऐसे महान संत ने जन्म लेकर हमारे देश के लोगो को धर्म के प्रति जागृत किया और एक नहीं राह दिखाई है।हमें रामकृष्ण परमहंस के जीवन के बारे मे पढना चाहिए और एक अच्छा जीवन व्यतीत करके हमारे देश के प्रति हमारा कर्तव्य निभाना चाहिए।
इस लेख को भिन्न भिन्न लेखों में लेकर एक अच्छा लेख बनाने की कोशिश की है ताकि आपको अच्छी जानकारी मिल सके।हमारा उद्देश्य सिर्फ आपको मोटिवेट करना,और अच्छी जानकारी प्रदान करना हैं।हमारे लेख को पढने के लिए दिल से शुक्रिया।🙏
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